Last modified on 1 जुलाई 2020, at 11:20

अपने भी बेगाने लगते हैं / कमलेश द्विवेदी

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:20, 1 जुलाई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कमलेश द्विवेदी |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जब-जब हमको अपने भी बेगाने लगते हैं।
हम ख़ुद से ही बातें कर मुस्काने लगते हैं।
जो भी कहना होता है वो
ख़ुद से कहते हैं।
चुप होकर भी कितनी बातें
करते रहते हैं।
कुछ को पागल कुछ को हम दीवाने लगते हैं।
जब-जब हमको अपने भी बेगाने लगते हैं।

जब भी कोई रिश्ता टूटे
तो दुख होता है।
जब भी कोई अपना छूटे
तो दुख होता है।
ऐसे में हम दर्द छिपाकर गाने लगते-लगते हैं।
जब-जब हमको अपने भी बेगाने लगते हैं।

सच पूछो तो कौन यहाँ पर
अपना होता है।
जग भी सत्य न होता
झूठा सपना होता है।
क्या-क्या कहकर हम ख़ुद को बहलाने लगते हैं।
जब-जब हमको अपने भी बेगाने लगते हैं।