कुछ कहना चाहती थी वो
पर न जाने क्यों...
'कुछ' कहने की कोशिश में
'बहुत-कुछ' छूट जाता था, उसका...
हर रोज करीने से सजाने बैठती
उन यादों से भरी टोकरी को
जिसमें भरे पड़े थे
उसके बीते लम्हों के कुछ रंग-बिरंगे अहसास,
कुछ यादें,कुछ वादें और भी बहुत कुछ...
गूंथने बैठ जाती वो
उन लम्हों को
जिसे उनदोनों ने जी भर के जिया था...
वो जानती है अब
इसका कोई मतलब नहीं
फिर भी गुजरती है
हर दिन उन लम्हों के
बिल्कुल पास से...
इस उम्मीद में कि शायद कोई
नन्हा सब्ज निकलेगा फिर से
पर सूखे दरख़्त भी कभी हरे हुए हैं भला
यादों की मियाद भी तय होती है शायद
ये वो जानती है
यादें कुछ भी नहीं बस बेमतलब का
श्रृंगार ही तो है 'मन 'का
जब जी चाहे कर लो
जब जी चाहे उतार दो
पर!
कैसे कह दे कि कोई रिश्ता नहीं है उससे
जिस अपनेपन और भावना की डोर को पकड़ कर
उसकी गहराई से बेखबर
सारी दूरियों को पार कर लेना चाहती थी
जानती थी डूबना वर्जित है
इसलिए
न डूब सकी न बच पाई
आज अपने शब्दहीन एकांत में
रोक लेना चाहती है
उन्हीं लम्हों को
पूछती है
मन में हलचल करते
उन जलतरंगों से की
क्यों दोहराती है...बार-बार उसका नाम
क्यों बंद आँखों से करती है
प्रार्थना उसकी सलामती के लिए
क्या...?
लौटेगा वो फिर से उसकी जिंदगी में
प्रार्थनाओं में कबूल हो गई
मिन्नत की तरह
पूछती है अपनी ही आत्मा से
बार-बार...हर बार...!