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आइने का साथ प्यारा था कभी / शारिक़ कैफ़ी

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आइने का साथ प्यारा था कभी
एक चेहरे पर गुज़ारा था कभी

आज सब कहते हैं जिस को नाख़ुदा
हम ने उस को पार उतारा था कभी

ये मिरे घर की फ़ज़ा को किया हुआ
कब यहाँ मेरा तुम्हारा था कभी

था मगर सब कुछ न था दरिया के पार
इस किनारे भी किनारा था कभी

कैसे टुकड़ों में उसे कर लूँ क़ुबूल
जो मिरा सारे का सारा था कभी

आज कितने ग़म हैं रोने के लिए
इक तिरे दुख का सहारा था कभी

जुस्तुजू इतनी भी बे-मा'नी न थी
मंज़िलों ने भी पुकारा था कभी

ये नए गुमराह क्या जानें मुझे
मैं सफ़र का इस्तिआ'रा था कभी

इश्क़ के क़िस्से न छेड़ो दोस्तो
मैं इसी मैदाँ में हारा था कभी