भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चकई की चकदुम / प्रदीप शुक्ल
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:49, 12 जुलाई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रदीप शुक्ल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
खूब झमाझम बरसे पानी
आ भीगें हम तुम
भीग रही
आँगन में डोरी
बूँदें उससे लटकीं
ऐसा लगता मारे डर के
साँसें उनकी अटकीं
एक एक कर कूद रही हैं
पानी में छुम छुम
बनते हैं
गायब हो जाते
पानी के ये बुल्ले
आसमान से बरस रहे हों
जैसे पैसे खुल्ले
आओ इसका पता करें
ये कहाँ हो रहे गुम?
लो चाची
बाज़ार से आईं
ले सब्ज़ी की थैली
और चप्पलों ने कर दी है
उनकी साड़ी मैली
नीचे बह कर लगा नाक पर
माथे का कुमकुम
पत्तों के
नीचे बैठी है
छोटी सी गौरैया
मोर नाचता है मेड़ों पर
करके ताता थैया
ताल किनारे मेढक बोला
चकई की चकदुम.