भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यकीं हो गया अब / कैलाश झा 'किंकर'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:23, 17 जुलाई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कैलाश झा 'किंकर' |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यकीं हो गया अब।
यहीं हैं कहीं रब॥

इन्हीं बाजुओं में
सफलताएँ हैं सब।

जुनूं जिन पर छाया
रुका करते हैं कब।

मिलेगा जो हक़ है
ज़रा खोलिए लब।

मैं आता हूँ निश्चित
बुलाता है वह जब।