Last modified on 18 जुलाई 2020, at 00:28

दाँत का टूटना / अरुण देव

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:28, 18 जुलाई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुण देव |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जहाँ से टूटा था दाँत
जीभ बार बार वहीं जाती सहलाती
बछड़े को जैसे माँ चाटती है
 
वह जगह ख़ाली रही
होंठ बन्द रहते
नहीं तो उजाड़ सा लगता वहाँ कुछ
 
गर्म ज़्यादा गर्म यही हाल ठण्डे का भी रहा
स्वाद जीभ पर बेस्वाद फिरता
कौर कौन गूँथे ?
 
जहाँ से टूटा था दाँत वहाँ एहसास के धागे अभी बचे थे
मशीन से उन्हें कुचलकर तोड़ दिया गया
 
दाँत लग तो गए हैं पर
जीभ अभी भी वहीं जाती है
क्या पता स्पर्श से यह जी उठे
 
दाँतों के बीच उन्हीं जैसा एक दाँत है, पर सुन्न
जैसे कोई कोई होते हैं आदमियों के बीच ।