Last modified on 18 जुलाई 2020, at 01:33

इतना सा है सामान / सुनील श्रीवास्तव

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:33, 18 जुलाई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुनील श्रीवास्तव |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हम,
जो शब्दों के सहारे
बदलने चले थे दुनिया,
कहाँ जानते थे
कि हमारी कविता के पूरा होते-होते
वे बदल देंगे
दुनिया की भाषा

तुम,
इत्र के व्यापारी,
क्या जानते थे
कि तुम्हारे नगर पहुँचने से पहले
लुप्त हो जाएगी
नागरिकों की घ्राण-शक्ति

बुझा दो
किसी काम की नहीं
पुरखों से मिली आग यह
इसे रोपना था जिन जवान धड़कती छातियों में
वहाँ पिछली बरसात का पानी जमा है
बजबजाता
हम चूक गए साथी

अपनी धीमी रफ़्तार से चूके हम
माशूक तो, बस, उस पार खड़ा था
बाँहें फैलाए
और हम कुचले गए
सड़क पार करते वक़्त

हम जंगलों, नदियों, पहाड़ों को लांघ कर आए थे
शेरों, साँढ़ों, साँपों को हरा कर आए थे
और जब मरे ट्रक से दबकर
गणमान्यों ने कहा — भुच्चड़ थे,
नहीं जानते सड़क पार करना

अब तो, बस, कुछ शब्द बचे हैं
अपनी भाषा तलाशते
एक ख़ुशबू है
अपनी पहचान ढूँढ़ती
राख में बची कुछ चिंगारियाँ हैं
बस इतना-सा है सामान
हमारे होने की गवाही देता ।