एक नीलगाय ने आज
ख़ुदक़ुशी कर ली
कूदकर सामने
जनता एक्सप्रेस के
कमबख़्त ऐसे मरी
कि खड़ी हो गई सरपट भागती गाड़ी
गाड़ी दो घण्टे से खड़ी है बियाबान जंगल में
दूर दस किलोमीटर है स्टेशन
पीछे गाड़ियों की कतार
चमचमाती ‘राजधानी’ भी खड़ी है बेबस
एक अन्धेरे स्टेशन पर
कुढ़ रहे यात्री
धड़ाधड़ लगा रहे फोन प्रियजनों को
दे रहे सूचना देर से पहुँचने की
चहलकदमी कर रहे ट्रैक के किनारे
मोबाइल की रौशनी में
जा-जा कर सूचना ले आते ड्राइवर-गार्ड से
कुछ बैठे-बैठे अन्दाज़ा लगाते
कोई कहता इंजन में फंस गया लोथड़ा
निकलता ही नहीं
कोई कहता पाइप फट गया वैक्यूम का
सब बेचैन
बैठे पकड़कर माथा
साली को यहीं मरना था !
पिछली गाड़ियों के यात्री
तो होंगे परेशान ज़्यादा
उन्हें तो पता ही नहीं
क्यों रुक गई अचानक
शुभयात्रा उनकी
कुछ तो खलबली मची होगी
विभाग में भी
कुछ तो परेशान हुए होंगे
बाबू रेलवे के
डिब्बे में चुपचाप बैठे अख़बार उलटता
पढता आत्महत्या की खबरें
सोचता हूँ मैं –
मरो तो इसी नीलगाय की तरह
दो घण्टे के लिए ही सही
ठप्प कर दो देश का यातायात
बकने दो ग़ाली कामकाजू यात्रियों को
(वे बेचारे तो चल नहीं सकते पैदल
दस किलोमीटर भी)
कुछ तो खलल डालो
व्यवस्था की सुख-निद्रा में
इस तरह मत करो ख़ुदक़ुशी
कि बस, अख़बार में छपकर रह जाओ ।