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महाब्राह्मण / रवीन्द्र भारती

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वहाँ कोई नहीं है
धिकते हुए लोहे की तरह लगती हैं
अपनी ही सांसें खाँसते हुए
अपाढ़ है उठना-बैठना
आवाज़ जो रहती थी समय-असमय में तत्पर
वह भी काया के भीतर कहीं जाकर बैठी है छुपकर
बहुत पुकारने पर बेमन से आती है बाहर ।

अकेला है महाब्राह्मण
उसकी तिरस्कृत देह पड़ी है उसके ही मन के आगे
जो मन खाकर मृतकों का अन्न
हंसता रहा सदैव शोक में
काँख में दबाए मृतकों के बरतन
मृतकों की सेज पर सोता रहा
यजमानों को कर शुद्ध, अशुद्ध बना रहा
आता-जाता रहा गाँव के बाहर-बाहर
कहाँ कभी छोटा हुआ कि होगा आज
यह दशा देखकर !

कहाँ कभी घबराया
परन्तु आज क्यों हो रही घबराहट
क्यों लग रहा है कि
मृतक देह के निमित्त मिली साड़ी, आलता, शाल
खूँटी में टँगे झोले से निकाल रही है प्रेतात्मा ।
वह निकाल लेगी तो क्या दूँगा
बेटी मायके में आई है पहली बार !

सोचते पसीने से लथपथ हो गया महाब्राह्मण
उसने उठने का किया बार-बार यत्न
जब उठ न सका तब जमाता को इशारे से बुलाया
गड़ा धन बताएँगे
ऐसा सोचकर आए सभी परिजन ।

हवा तेज़ थी
कि फड़फड़ाने लगे चान्द-तारे
देखते-देखते पोथी से निकल
खिड़की से हो गए बाहर ।
जमाता दौड़ने लगा कमरे में धरने को उन्हें
सम्भाले हुए हाथ में कुश की पैंती ...।