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अकेले के पास / रवीन्द्र भारती
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बचे हुए को छोड़ते आहिस्ता
तेज़ बौछारों में उतरकर —
निकल गया वह बारिश के अन्धेरे में चुपचाप ।
उफनती नदियों के पीठ पीछे किसी को टेर भी न लगी
यहाँ तक उन राहों को भी नहीं जो लोगों की पगध्वनियाँ
करती हैं लिपिबद्ध ।
देखा वही बरस-दिन पर अदनार मुख
लताओं, वृक्षों, पहाड़ों की उपत्यकाओं में ।
उछल गया भीतर ही भीतर भीतर का किरदार
पास बैठा हूँ उसी के जिस तरह आकर यहाँ
वह भी बैठता था कभी देखकर मुझको अकेला ।