भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हमशक़्ल / रवीन्द्र भारती
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:50, 19 जुलाई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रवीन्द्र भारती |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
आते-जाते दिनों को अपने रंग में जो हैं रंगते
आवाज़ों के शोर में दबी
अनगिनत चीख़ें जिनमें पड़ती हैं सुनाई
वही जो सिर पर उठाए बारिश, आँधी, ठण्ड, लू —
दिखते हैं दूर-दूर तक
उनके लिए ही भीतर से जाकर, खुले में खोलकर द्वार
निकसकर थोड़ी दूर
उनकी पुतलियों में देखता है कोई अपना मुख
देखता है, देखता है, देखता ही रहता है....
उस देखने को देखता अदीखा-सा उन्हीं में मैं भी कहीं हूँ
और यह जो मेरी एवज में बोलता है —
है मेरा हमशक़्ल ।