धान रोपती औरतों का प्यार / अरुण चन्द्र रॉय

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:11, 25 जुलाई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुण चन्द्र रॉय |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

खेतों के बीच
घुटने भर कीच में
धान रोपती औरतों से पूछो
क्या होता है प्यार
मुस्कुराकर वे देखेंगी
आसमान में छाये बदरा की ओर
जो अभी बरसने वाला ही है
और प्रार्थना में
उठा देंगी हाथ

धान रोपती औरतों का प्यार
होता है अलग
क्योंकि होते हैं अलग
उनके सरोकार
उन्हें पता है
बरसेंगे जो बदरा
मोती बन जाएँगे
धान के गर्भ में समाकर
और मिटाएँगे भूख
उन्हें कतई फ़िक्र नहीं है
अपनी टूटी मड़ैया में
भीग जाने वाले
चूल्हे, लकड़ी और उपलों की
हाँ , उन्हें
फ़िक्र जरूर है
जो ना बरसे बदरा
सूख जाएँगी आशाएँ

जब प्रेमी की याद आती है उन्हें
ज़ोर-ज़ोर से गाती हैं
बारहमासा
और हंसती हैं बैठ
खेत की मेढ़ पर
गुंजित हो उठता है
आसमान
ताल-तलैया
इमली
खजूर
और पीपल
दूर ऊँघता बरगद भी
जाता है जाग
उनकी बेफ़िक्र हंसी से

फ़िक्र भरी आँखों
और बेफ़िक्र हंसी के
द्वन्द में जीता है
धान रोपती औरतों का प्यार

इस पृष्ठ को बेहतर बनाने में मदद करें!

Keep track of this page and all changes to it.