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उतरा कल्प-झील के तीरे / कविता भट्ट

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उतरा कल्प-झील के तीरे,
मुग्ध-चाँदनी रात में धीरे।

पग में स्वर्णपादुका पहन,
ओ! बूढ़े झुर्री वाले मन।

थोड़ा खारे आँसू पी रे,
मुस्कानों के संग जी रे।

पिय आएँगे शान्त गगन,
गाएँगे तरु, झील, पवन।

कुछ तो घावों को सी रे,
तेरे हाथों बस यह ही रे।

पुलकित हो अब जीवन,
जग हो जाए यह मधुवन।

झुर्रियाँ हटा- दुःख की रे,
वो चुप्पी-हँसी मेरे भी रे।

देख तो कुछ सुन्दर सपन,
मयूर हो नाच, इस सावन।