भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सखि‍, अखिल प्रकृति की प्‍यास / हरिवंशराय बच्चन

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:09, 26 जुलाई 2020 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सखि, अखिल प्रकृति की प्यास कि हम तुम-तुम भीगें।
अकस्मात यह बात हुई क्यों
जब हम-तुम मिल पाए,
तभी उठी आँधी अंबर में
सजल जलद घिर आए
यह रिमझिम संकेत गगन का
समझो या मत समझो,
सखि, भीग रहा आकाश कि हम-तुम भीगें;
सखि, अखिल प्रकृति की प्यास कि हम तुम-तुम भीगें।

इन ठंडे-ठंडे झोंकों से
मैं काँपा, तुम काँपीं,
एक भवना बिजली बनकर
हो हृदयों में व्यापी,
आज उपेक्षित हो न सकेगा
रसमय पवन-सँदेसा,
सखि, भीग रही वातास कि हम-तुम भीगें;
सखि, अखिल प्रकृति की प्यास कि हम तुम-तुम भीगें।

मधुवन के तरुवर से मिलकर
भीगी लतर सलोनी,
साथ कुसुम की कलिका भीगी
कौन हुई अनहोनी,
भीग-भीग, पी-पीकर चातक
का स्वर कातर भरी,
सखि, भीग रही है रात कि हम-तुम भीगें;
सखि, अखिल प्रकृति की प्यास कि हम तुम-तुम भीगें।

इस दूरी की मजबूरी पर
आँसू नयन गिराते,
आज समय तो था अधरों से
हम मधुरस बरसाते,
मेरी गीली साँस तुम्हारी
साँसों को छू आती,
सखि, भीग रहे उच्छवास कि हम तुम भीगें;
सखि, अखिल प्रकृति की प्यास कि हम तुम-तुम भीगें।