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वसन्तागमन / प्रभाकर माचवे

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गा रे गा हरवाहे दिल चाहे वही तान
खेतों में पका धान

मंजरियों में फैला आमों का गन्ध-ध्यान
आज बने हैं कल के ज्यों निशान,
फूलों में फलने के हैं प्रमाण !

खेतिहर लड़की की भोली-सी आँखों में, निम्बुओं की फाँकों में
मुस्काता अज्ञान, हंसता है सब जहान,
खेतों में पका धान !

मधुऋतु रानी महान्,
मानिनी, बसन्ती रंग चोली झलके जिसकी,
ढलके आँचल धानी लहरा-सा,
आँखों में आकर्षण भी ख़ासा,
युग-युग का प्यासा-सा छलके दिलासा जहाँ,
उतरी उन सरसों के खेतों पर मायाविनि ।

हल्के-हल्के-हल्के।
फूल में छिपे निशान हैं फल के ।
उतरी वासन्तिका,
तहलका-सा छाया तरु-दुनिया में, छुटा भान,
स्वागत में कोकिला का पिंडुकी का जुटा गान ।

‘आशा ही आशा है'
आज अनिर्बन्ध, उष्ण, अरुण प्रेम-परिभाषा
पल्लव की पल्लव से सुरभिमय यही भाषा —
‘आशा ही आशा है...’
वासन्ती की दिगन्त-रिनिनिनमयि शिंजनियाँ,
पड़ती जो भनक कान,
परिवर्तित लक्ष-लक्ष श्रुतियों में रोम-रोम,
पंखिल हैं पंचप्राण !

गा रे गा हरवाहे, छेड़ मन चाहे राग
खेतों में मचा फाग ।