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त्रासदी / शहनाज़ इमरानी

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सफ़र की शुरूआत में
पैरों ने महसूस किया
ज़मीन का सक़्त हो जाना
विपरीत दिशा में हवा का चलना
उस एक पुरानी हवेली के दालान में
कितनी झूठी कहानियाँ सुनी थीं मैंने
कितने सच्चे अन्देशों को झूठा जाना था
बहुत से सवाल ज़हन को झँझोड़ते रहे
सीखा नाइंसाफ़ी को नाइंसाफ़ी
और ज़ुल्म को ज़ुल्म कहना ।

पूछती हूँ सवाल मेरे पिता ने भी भी पूछा था
ज़िन्दगी जीना आर्ट नहीं
पतली रस्सी पर चलता नट का खेल हुआ

कोई भी आदमी कभी भी
अलग तरह से उजागर हो कर चौंका देता
नहीं है आदमी के आकलन का कोई फार्मूला
हर कोई आइसबर्ग की तरह
दिखाता सिर्फ़ थोड़ा सा ही हिस्सा

एक मारक चाबुक की तरह
बेआवाज़ घटित होता और छोड़ जाता निशान
व्यक्ति को जानने का दावा खोखला हो चुका अब
खंजर पर क़ातिल के हाथ के निशा नहीं मिलते
धर्म के दस्ताने पहने हुए कुछ भी साबित नहीं होता
बहुत सारे विश्वासों में से भी फूट पड़ता है सन्देह ।