भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अवैध संतति! / सूर्यपाल सिंह
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:58, 10 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूर्यपाल सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ओ महानगर!
कैसे विष्वास करेें
हम तुम्हारी नियति पर?
एक-एक रेषा चमकाते
संचालित करते हम तुम्हंे
पर षहर के नक्षे में
हमारा कहीं नाम नहीं
बित्ता भर ज़मीन नहीं
पांव टिका लेने को
रह गए हम तुम्हारी
अवैध संतति ही!
अधिकारों से वंचित
कर्त्तव्य बोझ से दबे
कूड़े के ढेर से
होते निश्कासित हम
बार-बार, परिधि पार।
कब तक चलेगा यह
ओ महानगर!