उडे़ चुुप परिन्दे बताता न कोई।
षहर बेज़बां स्वर उठाता न कोई।
सियासी हवा में धुआँ ही धुआँ है,
गई आग बोई बुझाता न कोेई।
सभी खौ़फ़ को ही हवा दे रहे हैं,
कहीं नेह बाती जलाता न कोई।
यहाँ सिसकियाँ कौन सुनता विवष की,
कहाँ तंत्र जन का? दिखाता न कोई।
सियासत किधर जा रही है बताओ?
गिरे जो उन्हें बढ़ उठाता न कोई।