भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उडे़ चुुप परिन्दे बताता न कोई / सूर्यपाल सिंह
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:30, 11 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूर्यपाल सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
उडे़ चुुप परिन्दे बताता न कोई।
षहर बेज़बां स्वर उठाता न कोई।
सियासी हवा में धुआँ ही धुआँ है,
गई आग बोई बुझाता न कोेई।
सभी खौ़फ़ को ही हवा दे रहे हैं,
कहीं नेह बाती जलाता न कोई।
यहाँ सिसकियाँ कौन सुनता विवष की,
कहाँ तंत्र जन का? दिखाता न कोई।
सियासत किधर जा रही है बताओ?
गिरे जो उन्हें बढ़ उठाता न कोई।