पपीहे सदा 'पी कहा' बोलते हैं,
सुबह ही सुबह बोल रस घोलते हैं।
कटी बाग़ तो हड़बड़ाए पपीहे,
दिखें अब कहाँ कौन से गोल के हैं।
दुखी काग किसको व्यथा निज सुनाएँ?
न अब कांव बोलें न मुँह खोलते हैं।
न है बाग़ अब बोनसाई लगे हैं,
सभी मौन हैं खग, न पर तोलते हैं।
दिखी एक बुलबुल नहीं चहचहाई,
न बच्चे उसी के कहीं डोलते हैं।
बिना पेड़-पक्षी कहाँ ज़िन्दगी है?
जहाँ हों न ये हम मुआ बोेलते हैं।