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लापता मन / विपिन चौधरी

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मन बहुत दूर तक उसके साथ चलता गया
फिर भूल गया
वापसी का रास्ता
 
अपने मन को यूँ
खुला रखने के लिए मुझे
आज तक मिलते हैं
ढेरों उलाहने
 
देखती हूँ जब उन प्रेमिल आँखों में
जिनमें दिखाई देता है
मेरे मन का वह बालसुलभ रूप
चल दिया था जब वह
बिना चप्पल पहने, पैदल ही
उसके क़दमों पर क़दम टिकाता हुआ
 
अपने भीतर के उस बेशक़ीमती हिस्से के लापता होने पर भी मैंने
कभी उसे ग़ुमशुदा नहीं माना
और न माना शिकारी उसे
बुना था जिसने कभी
इसी मन ख़ातिर
बेहद लुभावना जाल
 
फ़िलहाल मन
अभी भी लापता है
और शिकारी
ठीक मेरे बग़ल में