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शीशे का शहर / रमेश ऋतंभर

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आजकल मेरे शहर का मिजाज
कुछ अच्छा नहीं दिखता
मेरे शहर में
अन्धेरे की साजिशें
रोज-ब-रोज बढ़ती ही जा रही हैं
और उजाले की कोशिशें
निरंतर नाकाम होती जा रही हैं
मुझे
शहर के मिज़ाज के बिगड़ने का अन्देशा
उसी दिन से हो गया था
जिस दिन से शहर के तमाम पत्थर
किसी के दास हो गये
जब से पत्थरों ने दासत्व स्वीकारा है...
तब से शीशे के घरों के लिए ख़तरा बढ़ गया है
और यह ख़तरा तब और ही बढ़ जाता है...
जब सारा का सारा शहर शीशे का बना हो।
भला, शीशे का शहर
कब तक अपने-आप को पत्थरों से बचा पायेगा...
मेरा शहर भी तो शीशे का शहर है
और जब कोई मेरे शहर पर पत्थर फेंकता है
तो वह टूट-टूट कर अनगिन किरचों में बिखर जाता है।

मैं अपने शहर के टूट कर बिखरे हुए उन्हीं किरचों को
अपने हाथों से चुनता हूँ
क्योंकि मैं अपने शहर को कभी टूट कर बिखरा हुआ
नहीं देख सकता।

मेरे टूटे शहर को देख कर हँसने वालो!
यह शहर तो कल फिर बन-संवर जायेगा
लेकिन मैं उस दिन से डरता हूँ
जब कोई पत्थर तुम्हारा भी शहर तोड़ेगा
तब तुम रोने के सिवा कुछ भी नहीं कर पाओगे
क्योंकि टूटे शीशे को चुनना तो
तुमने कभी सीखा ही नहीं!