भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कल्पना जिनकी यत्नहीन रही / जहीर कुरैशी

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 22:38, 23 सितम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार=जहीर कुरैशी }} <poem> कल्पना जिनकी यत्नहीन रही उनके ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


कल्पना जिनकी यत्नहीन रही
उनके पैरों तले ज़मीन रही

मैं भी उसके लिए मशीन रहा
वो भी मेरे लिए मशीन रही

बन के ‘छत्तीस’ एक घर में रहे
मैं रहा ‘छ:’ वो बन के ‘तीन’ रही

हर कहीं छिद्र देखने के लिए
उनके हाथों में खुर्दबीन रही !

पूरी बाहों की सब कमीजों में
साँप बनकर ही आस्तीन रही

तन से उजली थी रूप की चादर
किंतु मन से बहुत मलीन रही

आदमी हर जगह पुराना था
ज़िन्दगी हर जगह नवीन रही.