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बनकर फूल हमें खिलना है / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

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आसमान में उड़े बहुत हैं।
सागर तल से जुड़े बहुत हैं।
किन्तु समय अब फिर आया है,
हमको धरती चलना है।

सोने जैसी ख़ूब चमक है।
बिजली-सी हर और दमक है।
किन्तु बड़ों ने समझाया है,
भट्टी में तपकर गलना है।

फैले चारों और बहुत हैं।
तन मन से पर सब आहत हैं।
बिखर-बिखर कर टूट रहे हैं,
सांचे में गढ़कर ढलना है।

बोतल वाला दूध पिलाया।
चाउमिन पिज्जा खिलवाया।
यह सब कुछ अब नहीं सुहाता,
माँ के आँचल में छुपना है।

नकली ज़्यादा खिले-खिले हैं।
असली तो मुरझाये पड़े हैं।
हरे भरे पौधों पर लगकर,
बनकर फूल हमें खिलना है।