भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बड़ी चकल्लस है / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:00, 21 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रभुदयाल श्रीवास्तव |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
रोज-रोज का खाना खाना,
बड़ी चकल्लस है।
दादी दाल-भात रख देती,
करती फतवा जारी।
तुम्हें पड़ेगा पूरा खाना
नहीं चले मक्कारी।
दादी का यह पोता देखो,
कैसा परवश है।
बड़ी चकल्लस है।
भूख नहीं रहती है फिर भी,
कहती खालो-खालो।
मैं कहता हूँ घुसो पेट में,
जाकर पता लगा लो।
तुम्हें मिलेगा पेट लबालब,
भरा ठसाठस है।
बड़ी चकल्लस है।
पिज्जा बर्गर देती दादी,
तो शायद खा लेता।
चाऊमीन मिल जाते तो मैं,
पेट बड़ा कर लेता।
वैसे भी अब दाल भात में,
कहाँ बचा रस है।
बड़ी चकल्लस है।
पर दादी कहतीं हैं बेटे,
कभी भूल मत जाना।
सारे जग में सबसे अच्छा,
हिन्दुस्तानी खाना।
यहाँ रोटियाँ किशमिश जैसी,
सब्जी अमरस है।
बड़ी चकल्लस है।