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चन्दन चौकी बिछा लई, लिया शील गर्म सा पाणी / प. रघुनाथ

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प. लख्मीचंद सांग करने हेतु एक बार गांव बधौली-उ.प. के स्कूल में गए हुए थे, जो जांवली के पास पड़ता था। वही पर नजदीक में प. रघुनाथ के गुरु प. मानसिंह जांवली वाले भी कार्यक्रम कर रहे थे जिनकी ख्याति उस समय दूर दूर तक थी। उनकी प्रसिद्धि से प्रभावित होकर प. लख्मीचंद ने उनकी ख्याति जानने हेतु अपनी निम्नलिखित "टेक / मुखड़ा" लिखवाकर उन्होंने अपना ढोलकिया भेजकर सुबह ही प. मानसिंह के पास 4 कली के साथ पूरी रचना तत्काल ही बनवाने हेतु भेज दी।

चंदन चौकी बिछा लेइ, लिया शील गर्म सा पाणी,
साबुन तेल दही लेकै, गयी न्हाण बैठ सेठाणी।। टेक ।।

फिर वह ढोलकिया प. मानसिंह-जांवली के पास प. लख्मीचंद का संदेशा लेकर पहुंचा तो मानसिंह जी अपना कार्यक्रम कर रहे थे और उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि ये प. लख्मीचंद का संदेशा हैं इसे पढ़कर बताये। फिर वह संदेश उसके शिष्य श्री बलजीत पाधा ने पढ़ा और अपने गुरु मानसिंह-जांवली से कहा कि उन्होंने एक वार्ता के साथ एक "टेक" लिखकर भेजी हैं कि सेठाणी नहाने की तैयारी कर रही हैं अतः इस विषय पर मेरी ही टेक के साथ ये रचना इसी समय तत्काल ही पूरी करे क्योंकि मेरे को आज के सांग में ही इस रचना को गाना हैं। यही बात वहां बैठे मानसिंह जी के दूसरे शिष्य प. रघुनाथ भी सुन रहे थे तो उन्होने गुरु मानसिंह व गुरु भाई बलजीत पाधा से कहा कि आप दोनो काम करते रहो, इसे अभी मैं पूरी करता हूँ। फिर प. रघुनाथ ने वो रचना निम्नलिखित रूप में पूरी की और प. लख्मीचंद जी के पास वापस पूर्ण रचना के रूप में संदेश भेज दिया......

चंदन चौकी बिछा लेइ, लिया शील गर्म सा पाणी,
साबुन तेल दही लेकै, गयी न्हाण बैठ सेठाणी।। टेक ।।

अंग के वस्त्र तार त्यार हुई, जैसे टाट से बाहर छोलिया,
बायें कर म्य लौटा ले, मुंह अच्छी तरह धो लिया,
कुछ पानी लिया नाक के सुर से, मगज का मैल धो लिया,
कुरले और हलकवे से, जी शीतल शुद्ध हो लिया,
सिर पै पाणी जिब गेरया, मिलै ओमकार में प्राणी।।1।।

फेर फुरना से लहर उठी, जणू सात समुन्द्र हिलगे,
तीनो सुर से मिल त्रिवेणी, अड़सठ तीर्थ मिलगे,
तेल दही मलने से, कीटाणु गंदे बाहर निकलगे,
शीतल वायु लगने से, सब रोम त्वचा के खिलगे,
तन की शुद्धि से मन चेतन हुई, पवित्र हुई वाणी।।2।।

अंग अँगोछे से पूछा, खिले रोम त्वचा के थल म्य,
एकदम स्थिरता सी छागी थी, चातर चित चंचल म्य,
शीतल वायु लगने से, बढ़ी तेजी बुद्धि बल म्य,
इसीलिए ईश्वर का सच्चा, रूप बताया जल म्य,
कर अस्नान ध्यान से दुनिया, एक रूप म्य जाणी।।3।।

फिर सब आभूषण धार लिए, होई कुंदन बरगी काया,
आसण योग समाधि से, चित एक जगह ठहराया,
सब सोचै ईश्वर ना मिलता, पर जिनै टोह्या उनै पाया,
सिरस वैद्य और वैद्यक म्य, करना अस्नान बताया,
तू रघुनाथ प्रेम तै नहा, समय बार बार ना आणी।।4।।

फिर वह ढोलकिया उस तत्काल रचना को प. लख्मीचंद के पास पहुंचा और प. लख्मीचंद ने वो तत्काल रचना पढ़ी। फिर वह रचना पढ़ने के बाद उन्होंने कहा कि जैसी रचना मैं बनाना चाहता था बिल्कुल वैसे ही भावो के साथ बनाई हैं लेकिन इस रचना में तो प. रघुनाथ की छाप हैं, न कि प. मानसिंह की छाप है। फिर उस ढोलकिये ने बताया कि प. मानसिंह तो अपने कार्य में व्यस्त थे इसलिए उनके शिष्य प. रघुनाथ ने ही तत्काल बनाकर भेजी हैं।