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दरख़्तों के मसाइल कौन समझे / विक्रम शर्मा

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दरख्तों के मसाइल कौन समझे
ठहर जाने की मुश्किल कौन समझे

गलत राहों में भटके थे मुसाफिर
बदन के रास्ते दिल कौन समझे

जिसे समझा गया है लहर हरदम
उसे होना है साहिल कौन समझे

मिले थे तुमसे हम राहों में जाना
सो अब मंजिल को मंजिल कौन समझे

शिकायत ये कि तूने भी न समझा
हमे तेरे मुक़ाबिल कौन समझे

कोई करता नही कारे मुहब्बत
यहाँ मेरे मशागिल कौन समझे