अपने प्रेम को / अष्टभुजा शुक्ल
प्रेमी जीव हूँ मैं
जबकि दुनिया प्रेम की ही विरोधी है
बहुत तस्कर हैं प्रेम के
बहुत हैं ख़रीददार
कौन-सा बैंक अपने लाकर में रखेगा इसे?
समुद्र में डाल दूँ तो
मैं ही कैसे निकालूंगा बाद में
किसी तारे में
उसकी प्राण-प्रतिष्ठा कर दूँ
कल कैसे खोज पाऊंगा, मैं ही,
आसमान देखकर
एक दिन तो प्रेम
मधु से निकलकर चुपचाप
मिट्टी के तेल में बैठा मिला
एक दिन चांदनी में
किसी पादप की छाया देखकर
भ्रम हो गया मुझे
कि सो रहा है प्रेम
कुछ दिनों के लिए उसे रख दिया था
तुम्हारी आँखों में
कुछ दिनों के लिए
तुम्हारी हथेलियों में
रख दिया था उसे
कुछ दिनों के लिए
बिछा दिया था प्रेम को
पलंग की तरह
जिसके गोड़वारी (पैताने)मैं था
और मुड़वारी (सिरहाने)तुम
जब निकाल दिया तुमने अपने यहाँ से
प्रेम को
वह मुझ से मिला
जैसे निकाल दिया गया आदमी
मैं उसे अपने साथ लाया
उसके हाथ-पैर धुलाए
उसे जलपान कराया
बहलाया-सहलाया
कुछ दिनों बाद उसे
अपने अन्तर्जगत का कोना-कोना दिखलाया
अपने साथ रहते-रहते
जब कुछ-कुछ ऊबने लगा प्रेम
तो उसे मैंने
बालू भरी बाल्टियों की तरह
जगह-जगह रख दिया
नफ़रत की आग बुझाने के लिए
आग बुझाते-बुझाते एक दिन
वह स्वयं झुलसा हुआ आया
दोनों पहिए पंचर साइकिल की तरह लड़खड़ाता
उसी दिन से
मैंने कहीं नहीं जाने दिया अन्यत्र
अपने प्रेम को
शब्दों में रखकर
हो गया निश्चिन्त
कि उसके लिए
कविता से आदर्श और अच्छी
दूसरी कोई जगह नहीं