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बस : कुछ कविताएँ-4 / रघुवंश मणि

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नानी देखती थी बस

फूटे चश्मे से


नाना देखते थे

आँखों पर हाथ छाकर


बच्चे दौड़ते थे

बस के साथ-साथ


नाना हो गए ख़ाक

नानी गई मर

बच्चे हो गए बड़े


जाने कहाँ खो गई

वह धूल उड़ाती बस