भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जितनी जल्दी हो / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:39, 28 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रभुदयाल श्रीवास्तव |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हिन्दी शब्दों के अर्थ उपलब्ध हैं। शब्द पर डबल क्लिक करें। अन्य शब्दों पर कार्य जारी है।

अब तो लगता गरमी आए,
जितनी जल्दी हो।
शाला कि छुट्टी हो जाए,
जितनी जल्दी हो।

दौड़-भागकर पहुँचें गाँव के,
घर के बाहर।
वहीं खड़ी दादी मिल जाए,
जितनी जल्दी हो।

रोज-रोज दादी तो मुझको,
सपने में आती।
रोज गूंथती चोटी मेरी,
कंगन पहनाती।
अब तो सपना सच हो जाए,
जितनी जल्दी हो।

कंडे-लकड़ी-चूल्हे वाली,
रोटी अमृत-सी।
उस रोटी पर लगा गाय का,
देशी ताज़ा घी।
काश! मुझे हर दिन मिल जाए,
जितनी जल्दी हो।

किसी रेलगाड़ी में रखकर,
गाँव उठा लाऊँ।
दादी वाला आंगन अपनी,
छत पर रखवाऊँ।
बचपन उसमें दौड़ लगाए,
जितनी जल्दी हो।

बचपन वाली नदी नील सी,
सूखी-सूखी है।

कल ही तो दादी ने ऐसी,
चिट्ठी भेजी है।
राम करे जल से भर जाए,
जितनी जल्दी हो।