भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम क्या जानो / सर्वेश अस्थाना
Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:12, 29 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सर्वेश अस्थाना |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
तुम क्या जानो
तुम्हें देखने की ख़ातिर
हम क्या क्या करते हैं ।।
आसमान के सभी सितारे पास बुला कर हम,
अपनी आंखों के बिस्तर पर उन्हें सुला कर हम,
फिर उन सबकी भोली सूरत के भोलेपन में
रोज़ तुम्हारी मुस्कानों का
तेवर भरते हैं।।
तुम क्या जानो.....
उपवन में उड़ती तितली को फूलों संग बिठाकर,
हर भौरे को कली कली के आंगन में महकाकर,
मलय पवन की वीणा के स्वर झंकृत करके तब,
हम अपने में कली भ्रमर बन बातें करते हैं।
तुम क्या जानो.….
बादल मस्त हवा के संग संग जब जब उड़ता है,
मेरा मन जहाज का पंछी बन कर मुड़ता है।
वापस आकर सपनो की मुंडेर पर टेरे वो,
अभिलाषा का प्रेम पत्र तब लिख लिख धरते हैं।
तुम क्या जानो....