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दर्पण दर्पण तुम्हे उतारूं / सर्वेश अस्थाना
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दर्पण दर्पण तुम्हे उतारूं शब्द शब्द में गाऊं मैं,
मन की वीणा तुम्हें बनाकर खुद झंकृत हो जाऊं मैं।
बादल बादल बूँद समाये जीवन के नभ में इतराये,
सागर सागर बरस उठे मन, लहर लहर तट को भर लाये।
सीप सीप में तुमको ढूँढू सारे मोती लाऊँ मैं।
दर्पण दर्पण...
डाली डाली तन इतराये, बूटा बूटा अगन लगाये,
सोने जैसी किरण छुए तो पत्ता पत्ता लाज लजाये।
पुष्प पुष्प में तुम्हें बसा कर ख़ुद को ही महकाऊं मैं।।
धरती धरती यौवन बिखरा, गगन गगन आवारापन,
यादों की दरिया ले आये ,नयन नयन में खारापन।
मौसम मौसम घन गरजे तो वर्षा को समझाऊं मैं।।