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दिन हुआ बूढ़ा हलाकू / शशिकान्त गीते
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हो गया है
इन दिनों क्यों
बेवज़ह मौसम लड़ाकू ।
हो चली है
ख़त्म सारी
मान्यताएँ सुबह की
चल पड़ी हैं आँधियाँ
सर्द औ’
गूँगी ज़िबह की
सड़क पर दौड़ता
पागल समय
ले हाथ में चाकू ।
ढल गई है
दोपहर
अपनी छिपाए प्रौढ़ता
सूर्य
ठण्डी धूप का
आँचल नहीं है छोड़ता
साँझ के चिन्ह
चेहरे पर
दिन हुआ बूढ़ा हलाकू ।