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एक टुकड़ा धूप / शशिकान्त गीते

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एक टुकडा़ धूप ने ही
अर्थ मुझको दे दिया ।

जागरण का भ्रम धरे मैं
दरअसल सोता रहा
गहरे अहं में डूबकर
क्या न क्या खोता रहा?
शेष है कितना समय
ओह मैने क्या किया ?

स्वप्न- सृष्टा चान्दनी के
मोह- पाशों से निकल
आज ही मैंने जिए हैं
दो पलाशी- पल असल
आज मैंने क्या गरल के
पात्र में अमृत पिया ?