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दो मनःस्थितियाँ / रंजना मिश्र

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एक

ख़ुद से संवाद का गहरा काला मौन
कहीं और नहीं उगता
अपने भीतर ही पनपता है
धमनियों में दौड़ती है
विलाप की गूँज
देर तक...
समय की पटरी पर
बिखरा वजूद
चौंक कर जाग उठता है
जब वास्तविकता के छाले पर
पाँव पड़ता है
किसी सपने का
शब्दों का आडंबर
सहमकर अपने हाथ खींच लेता है
मुस्कान की इक चादर ओढ़
निकल जाती हूँ
गंतव्यहीन भविष्य की ओर
समय की दौड़ जारी है!

दो

दुनिया वैसी ही थी
जैसी थी
अपने होने
और न होने के बीच
कालखंडों के बीच दूरियाँ अनवरत थीं
रफ़्तार से जीते दृश्यों की
आवाजाही से बनती-मिटती
छायाओं का दृष्टिभ्रम
तेज़ी से राख के धूसर रंगों में
बदलता जाता था
उगते थे कई सूर्य
और ठीक शाम ढले
अस्त हो जाते थे
दुनिया को अँधेरे की बाँहों में सौंपकर

दुनिया ऐसी ही थी
जैसी थी
अपने होने और न होने के बीच
बस उस चींटी के सिवा
जो बार-बार गिरकर भी
अनवरत उस दीवार पर चढ़ती जाती थी
नींद में मुस्कुराता था कोई बच्चा
और जंगल में फिर से लौटता था वसंत
रात और दिन की परवाह किए बग़ैर
काल की दीवार पर
ठहर गए थे ये दृश्य
दुनिया वैसी न थी
जैसी थी

अपने होने और न होने के बीच!