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मेरे अंदर जो इक फ़क़ीरी है / अजय सहाब

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मेरे अंदर जो इक फ़क़ीरी है
ये ही सब से बड़ी अमीरी है

कुछ नहीं है मगर सभी कुछ है
देख कैसी जहान-गीरी है

'पंखुड़ी इक गुलाब के जैसी'
मेरे शे'रों में ऐसी मीरी है

रूह और जिस्म सुर्ख़ हैं ख़ूँ से
फिर भी ये पैरहन हरीरी है

तल्ख़ सच सबके सामने कहना
अपने अंदाज़ में कबीरी है

तुझ से रिश्ता कभी नहीं सुलझा
उस की फ़ितरत ही काश्मीरी है