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आठ जून दो हज़ार नौ / उत्तिमा केशरी

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रंगमंच के,
श्लाका पुरुष
हबीब तनवीर !

छियासी वर्ष का वह योद्धा
भारत के रंगमंच की आत्मा में
उत्फुल्ल जिजीविषा से समाया हुआ।

राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय पहचान
देनेवाले
हबीब तनवीर साहेब ने
बुनियाद डाली
नाट्य की एक नई परम्परा की।

उनके सपने और संघर्ष ने
कई ऐतिहासिक प्रयोग किए,
वे जानते थे —
कैसे बनाया जाता है
मिट्टी से सोने जैसा आकर्षण
देखी थी मैंने—
पटना के पुस्तक मेले में
उनकी आँखों की गहराई
और वह चमक
वह खनकती रोबीली आवाज़।
जो आज भी गूँज रही है
मेरे मानस में
उपलब्धियों की ऊँचाई पर
आसीन होते हुए भी,
एक आम आदमी की तरह
सहज और आत्मीय।

सच !
हबीब साहेब !
आप हैं हर साहित्यकार के मीत
समर्पित और निष्ठा भाव से
नाटक करनेवाले —
जगा गए मेरे मन में भी
एक गहरा रचनात्मक सम्मान !
वैचारिक प्रतिबद्धता से लबरेज
तेजो दीप्त हबीब साहेब को —
बार-बार मेरा सलाम।