माँ !
तुम कितना भी कुछ कहो,
मगर मैं नहीं बनना चाहती,
डॉक्टर, इंजीनियर
प्रशासनिक पदाधिकारी
या
फिर, न्यायधीश !
माँ !
मैं सिर्फ़ बनना चाहती हूँ
क़लम का —
एक संवेदनशील, प्रबुद्ध सिपाही
और
लड़ना चाहती हूँ —
प्रतिकूल स्थितियों से
आत्मिक-न्याय का युद्ध।
ताकि,
बचा रहे,
मेरी शब्द-सम्पदा का ज़मीर।