भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आत्मिक न्याय का युद्ध ! / उत्तिमा केशरी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:11, 6 सितम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उत्तिमा केशरी |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

माँ !
तुम कितना भी कुछ कहो,
मगर मैं नहीं बनना चाहती,
डॉक्टर, इंजीनियर
प्रशासनिक पदाधिकारी
या
फिर, न्यायधीश !

माँ !
मैं सिर्फ़ बनना चाहती हूँ
क़लम का —
एक संवेदनशील, प्रबुद्ध सिपाही
और
लड़ना चाहती हूँ —
प्रतिकूल स्थितियों से
आत्मिक-न्याय का युद्ध।

ताकि,
बचा रहे,
मेरी शब्द-सम्पदा का ज़मीर।