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हँसी / शार्दुला नोगजा
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मुद्दत हुई है कब सुनी थी वो हँसी जो गगन चूमे
और जो काली घटा पे बन के लाली बिखर जाए।
वो हँसी कि जिसको सुनने के लिए झरनों का पानी
ऊँचे पहाड़ों से निकल मेरे शहर में उतर आए।
मुद्दत हुई है कब सुनी थी वो हँसी।
मुद्दत हुई है।
लौटा दो मुझको वो हँसी वो खोया बचपन
वो माँ का आँचल जिसमें ढेरों झूले खाए।
ऐसे हँसो कि यों लगे ज्यों कोई गुड़िया
बचपन की बारिश में उछल के फिसल जाए।
मुद्दत हुई है कब सुनी थी वो हँसी।
मुद्दत हुई है।