भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कहानी एक कही हुई / अशोक शाह

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:31, 7 सितम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अशोक शाह }} {{KKCatKavita}} <poem> चन्द्रमा की कि...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चन्द्रमा की किरणों के नीचे आधी रात
समय की अन्तहीन पसरी पीठ पर खड़ा हूँ
मेरी सीध में एक अनिष्चित भविष्य है
पीछे वह सब कुछ जो बीत चुका-

पीछे मेरे उगा हुआ पौधा है, एक बड़ा हुआ वृक्ष है,
बह गयीं कितनी नदियाँ हैं,
उगी हुई फ़सलें उगाई जा चुकी हैं
एक पैदा हुआ बच्चा है
जो खड़ा होता है, चलता है, दौड़ता है, वृद्ध होता,
मर जाता है,

एक कहानी है गढ़ी हुई, कहानी एक कही हुई,
सारे पात्र उसके गुजरे हुए
लगते पथिकों सा अनजान डगरों पर चलते हुए,

धोखे से मारा गया एक सत्यवादी मनुष्य है
कपटी हत्यारा एक राजा है
डरी हुई शताब्दियों की टूटी र्हुइं साँसें है

धरती का सुन्दरतम् पशु मारा गया बाघ है
उसकी खाल अतीत के ड्राइंग रूम में लटकी हैं
उसने अनेक कायर मनुष्यों को वीरता की
उपाधियों से किया है विभूषित

जो बीता हुआ सब कुछ है
उसमें बदलााव की नहीं कोई गुंजाईश

मैं सोचता हूँ
ज्योंही एक कदम बढ़ाता हूँ
घटनाएँ और दृश्य अतीत हो जाते हैं
समय उड़े हुए पंछी की तरह निकल जाता है
स्मृतियों के पंख शेष हाथ में रह जाते हैं

इस स्थिर समय में मैं
चलता हुआ बीत जाता हूँ

लेकिन मैं कब हूँ
कहाँ शुरू, कहाँ खत्म होता हूँ
पता नहीं चलता

समय की पीठ पर एक बीते हुए जीवन की
बस फ़िल्में देख पाता हूँ
इन आँखों का क्या करूँ
जो होता है, देख पाती नहीं
जो देखतीं हैं, हो चुका है

विचारों और स्मृतियों के घोल से मन
लगातार कहानियाँ गढ़ता जाता है
इन कहानियों के बोझ तले चलता हुआ थक जाता हूँ

अंतिम बार आँखें खोल देखता हूँ
पर कहीं पहुँचा हुआ नहीं होता हूँ
अंतहीन समय है पसरा हुआ
बुलबुले उठते हैं और उसी में फूट जाते हैं