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ढाणी का भविष्य / सुरेश विमल

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बिना पीठ वाली कमीज़
और थेगलियों वाला निकर पहने
रेतीले जोहड़ के किनारे खड़े
बूढ़े पेड़ की सूखी इमलियाँ
चबा रहा है जो बालक
इस ढाणी का भविष्य है...

ढाणी से दो कोस दूर
आकार लेती हुई एक सड़क पर
गिट्टियाँ ढोते हैं इन दिनों
इसके माँ-बाप
और छोड़ जाते हैं इस बालक को
खेजड़ों में झूलते हुए
बया के घोसलों को धेले मारने
या अकाल में मरने वाले
ढोरों के कंकाल गिनने के लिए...

बहुत अच्छी तरह
परिचित है यह बालक
रेत के उन तमाम धोरों से
डेरा डाले हुए हैं जो
इस असहाय ढाणी के चारों ओर
और जिनके सम्पाती डैने
पसरे हुए हैं
पपड़ाये, दरकते हुए खेतों के सीने पर
पथरा गई है जिन्हें
एक लम्बी
बहुत लम्बी प्यास...

दिन भर ढूँढता है जो
पेड़ों की छालों और पत्तियों में
गले को गीला करने का उपाय...

इस बालक को
सफाई से रहने
और 'अ' से 'अनार'
रटने की सीख देता है जब
साल में एक बार
ढाणी की खोज-ख़बर लेने वाला ग्रामसेवक
तो सचमुच
अचरज भरे सोच में
डुबो जाता है इस बालक को...

कैसा तो होता है
सफाई से रहना
और कैसा पढ़ना?
कैसी पोथी...कैसी स्लेट
कैसा 'अ' और कैसा 'अनार' ?
बहुत दूर है अभी इस ढाणी से
इक्कीसवीं सदी की ओर रेंगता
यह देश...

जब भी
देश का कोई संवेदनशील प्रतिनिधि
रेत के धोरे लाँघ कर
पहुँचता है इस ढाणी में
यह बालक
समूची ढाणी का आइना बनकर
उसके सामने
आ खड़ा होता है।