असहमत / सपन सारन
कविता की दूसरी पँक्ति 
कविता की पहली पँक्ति से दूर 
जाकर पाँचवी पँक्ति में खड़ी हो जाती है 
अलग सी 
असहमत 
बाहर निकली हुई 
इस पँक्ति को बाक़ी पँक्तियाँ ईर्ष्या से देखती हैं 
कि कहीं ऐसा तो नहीं कि यही वो ख़ास पँक्ति है 
जिसके लिए कविता लिखी गई है 
शक से सनी पँक्तियाँ कविता से शिकायत करती हैं 
कि इस अकेली पँक्ति को अकेला न रखा जाए 
सब-सा बना दिया जाए 
लोरी की तरह 
कविता कहती है — वो ‘कविता’ है !
कविता कहती है — “अरी पँक्तियो !
क्यों न तुम भी जाकर बिखर जाओ 
आड़ी-टेढ़ी लम्बी-छोटी बन जाओ 
तब पाँचवी पँक्ति अलग नहीं रहेगी !”
पँक्तियाँ ख़ुशी-ख़ुशी इतर-बितर हो जाती हैं 
अलग-अलग कोने पकड़ लेती हैं 
कोई लेट जाती है 
कोई खड़ी हो जाती है 
कोई चौराहे के बीचों बीच बाल बनाती है 
सब मगन और आत्म तल्लीन 
कवि कविता को आख़िरी बार पढ़ता है 
पाँचवी पँक्ति को शीर्षक बना देता है ।
 
	
	

