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मैं एक शून्य हूँ / सुरेश विमल
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मैं बहुत निर्बल हूँ और अभिशापित
आम आदमी कर नाम से विज्ञापित
खेता हूँ मैं सम्बन्धों की नाव
प्रवंचनाओं के अंतहीन सागर में
मुंह अपना डाले हुए
संभावनाओं की एक रीती गागर में।
मैं बहुत प्यासा हूँ और संतापित
युग-युगों से उत्पीड़ित प्रताड़ित।
अनुभूत लहराता है मेरे आसपास
हर क्षण एक दमघोंटू गंध सा
भीतर ही भीतर कराहता है मन
एक आहत अनुबंध सा।
घरौंदा बना हूँ मैं यंत्रणाओं का
शिकार हुआ हूँ ने कुमंत्रणाओं का
अकाल-मृत्यु प्राप्त मेरे स्वप्नों की
प्रेतात्माएँ मुझे सताती हैं,
पल-पल टीसती विवशताएँ
रह-रह कर मुझे रुलाती हैं।
मैं एक शून्य हूँ, निःशब्द और अंधेरा
निक्षिप्त, लहूलुहान, एक चेहरा।