Last modified on 14 सितम्बर 2020, at 23:23

रुत आई जाड़े की / सुरेश विमल

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:23, 14 सितम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेश विमल |अनुवादक= |संग्रह=काना...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

रुत आई जाड़े की!

लोंग मिर्ची तुलसी अजवाइन
दादी के काढे की!

दादा जी का कोट धरोहर
लगे अजायबघर की
मोहर धुलाई की इस पर है
अंकित सन सत्तर की।

कहते दादी जी अपनी है
चीज नहीं भाड़े की।

गरमा गरम रोटियाँ निकली
चूल्हे से मक्का कि
बहुत संभाला मगर टपक
ही गई लार कक्का कि
मिमियाती है रात-रात भर
भेड़ खुले बाड़े की।