भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फुहारों में / सुरेश विमल
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:49, 14 सितम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेश विमल |अनुवादक= |संग्रह=कहाँ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
खेलने दो फुहारों में
अब हमें तो को नहीं माँ।
बहुत दिन की प्रतीक्षा के
बाद बादल बरसते हैं
साल भर तो इन फुहारों
के लिए हम तरसते हैं।
नाव काग़ज़ की चलाने दो
अब हमें टोको नहीं माँ।
गीत बूंदों का सुनाते
भीगते पत्ते हमें
आओ तो बाहर, बगीचे
झूमते कहते हमें।
झूमने दो कदम्बों पर
अब हमें टोको नहीं माँ।