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मुड़ी-तुड़ी चिन्दियाँ / अलकनंदा साने

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मैं अक्सर स्त्री विमर्श की बात करती हूँ
मैं बताती रहती हूँ सरेआम
कि मेरे घर के पुरुष
काम में हाथ नहीं बंटाते
कि मुझे एकाध बार लेना पड़ती है
कहीं जाने की अनुमति
कि बच्चे की बीमारी में
रुकना पड़ता है मुझे ही घर पर
या कि मेहमानों का जिम्मा होता है
अंतत: मुझ पर ।

रिश्तेदारी निभाना
लगती है मुझे महति जिम्मेदारी
मुझे ही देखना पड़ता है
कितना बाक़ी है महीना
और कितनी शेष है
दाल-चावल, भाजी-तरकारी।

पृथ्वी की तरह
अपनी ही धुरी पर
आत्म मुग्ध घूमती रहती हूँ
और सूर्य के आसपास रहने से
मिलती है जो ऊर्जा, ऊष्मा
उसे ताप कहकर खारिज करती रहती हूँ

उस समय मुझे नहीं याद आती
गढ़ चिरोली के जंगलों में रहनेवाली
वह आदिवासिन
जो हर महीने उन दिनों
चिथड़ों में रेत भरकर बाँधती है
सृजन की रक्तिम बूंदों को
और निकल पड़ती है लकड़ी बीनने

मैं कमाठीपुरा कि
उन औरतों को भी भूल जाती हूँ
जो बिकती हैं, सब्जी-भाजी की तरह
उन्हें बैठने की अनुमति नहीं होती ।
मेरे हमाम से भी कम जगह में
ठूंस-ठूंसकर खड़ा किया जाता है उन्हें
और आवाज़ दे-देकर
बिकवाती हैं ख़ुद ही, ख़ुद को ताज़ा कह-कहकर

मैं भूल जाती हूँ उस औरत को भी
जिसका आदमी उसकी योनि पर
ताला लगाकर जाता है दिहाड़ी पर

मैं अपने घर से निकलकर पहुँच जाती हूँ
कहीं भी इत्मीनान से
भाषण झाड़ने, जोश खरोश से
गिनवाती हूँ अपनी तकलीफें
वृहद आकार में
और बटोरती हूँ तालियाँ दर्जनों में

क्या मैं सचमुच जानती हूँ स्त्री के दुःख को
क्या मुझे पता है
कैसे होता है
बिना घर के, बिना दीवार के
बिना प्रेम के, बिना सुरक्षा के रहना
बिना आशा के, बिना विश्वास के जीना

बेहद आसान है
अख़बार के शीर्षकों में बने रहना
पर बिलकुल भी आसान नहीं है
मुड़ी-तुड़ी चिन्दियों की तरह
किसी अँधेरे कोने में पड़े रहना ...