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कायापलट / शहनाज़ रशीद / अग्निशेखर

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जाने किस दिगन्त से
किस वन से आया वो कौवा
दौड़ता-दौड़ता
गया एक एक छत पर
देखीं अटारियां
पीछे-पीछे भागा छायाओं के
                 लगा नहीं कुछ हाथ
उसे मिला नहीं कोई भी

रहा शाम तक
किसी बर्फ़ीली रात की
पुरानी किसी आग की स्मृति से बिंधा
किसी शुक्लपक्षी शीतलता के
रोमांच से भरा
था अनजान वह
युग के कायापलट से

बहुत दिन बीते तबसे
जब काट गिराया गया था
बस्ती का वो अकेला चिनार
जब साँझ गए लौटकर पंछियों ने
मनाया था मातम
          अपने रैन बसेरे का
जब मरुथल लील गया था
ओस कणों को
और सोख गया था चौंध
     बादलों से भरा आकाश

बहुत दिन बीते तब से
जब खिड़कियो के पिंजर-पल्ले
भूल गए राह तकना
अपने प्रेमास्पदों की
जब चाँद को दे गई दगा
अटारी ही
बहुत दिन बीते तब से

कश्मीरी से अनुवाद : अग्निशेखर