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पुरानी तस्वीर / रघुवीर सहाय
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अपने धुंधलके शून्य से जब उठाया सिर
दिखी तब दीवार पर तस्वीर
तेरह बरस उसने काल में लटके हुए काटे
मुझ में बुढ़ापा दिखा
दुबारा गौर से ताका जहाँ यह खिंची थी वह जगह
याद आई सही लगभग
मगर दिन कई ऎसे दिनों में उलझा पाया
अजब है वक़्त का व्यवहार अपने प्रमाणों से
कि मैं जितना गुज़रता हूँ यहाँ कटते दिनों से
चित्र उससे अधिक ही कुछ बीत जाता है
काल का यह व्याज है या दृष्टि का भ्रम है
कि ठहरी हुई स्मृतियाँ भी विगत में बीत जाती हैं
नहीं यह जड़ न होने का अनोखा आश्वासन है
पुन: प्रत्यय किसी बिसरे हुए क्षण का
जिसे पकड़ा गया था कभी अनजाने