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घण्टी वाला ईश्वर / कुमार कृष्ण

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वह हर मंगलवार को आता है वहाँ-
ईश्वर की खोज में
मंगलवार ही है ईश्वर का दिन
वह दर्ज करता है अपनी उपस्थिति घण्टी बजाकर
गुनगुनाता है दादा-परदादा के सिखाये हुए मन्त्र
उसने सुना है मन्त्रों में रहता है ईश्वर
ईश्वर जानता है दुनिया कि तमाम भाषाएँ
जानता है पूरी धरती का दुःख
वह जितनी बार आता है-
उतनी ही बार ले जाता है छुपा कर ईश्वर अपने साथ
कभी फूल में
कभी दूब में
कभी इलायचीदाने में
कभी सिन्दूरी तिलक में
कभी-कभी बाँध देता है पुजारी रोली के साथ
उसकी कलाई पर ईश्वर
उसकी अंगुलियों में होने लगती है एक विचित्र-सी हरकत
वह सोचता है मन-ही-मन
लड़ेगा वह इस हाथ से अन्याय के खिलाफ़
यह उसका नहीं ईश्वर का हाथ है
वह लड़ेगा अत्याचार-दुराचार के खिलाफ़
वह नहीं जानता इस भयानक समय में
उसके ईश्वर से भी शक्तिशाली हैं दूसरों के ईश्वर
उसने तय किया वह घर जाकर एक कविता लिखेगा
उसी क्षण उसे याद आया-
सच को सच और झूठ को झूठ लिखना
इस समय कितना खतरनाक है
इसे ईश्वर भी नहीं जानता
वह ढूंढ़ता है पूरे घर में बाहुबली ईश्वर
जो सदियों से खड़ा है मंदिरों में रंग-बिरंगे परिधान में
वह ढूंढ़ता है घण्टी में
सूखे हुए फूलों में
गोरखपुर की किताबों में आख़िर मिल ही जाता है ईश्वर
वह कुछ नहीं बोलता
बस एक तस्वीर से हंसता है उसकी ईमानदारी पर।