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सपनों के उत्सव में कालाकोट / कुमार कृष्ण

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एक वकील जब लिखता है कविता
वह कर देता है तमाम काले कोटों में
छोटे-छोटे सुराख
एक वकील जब लिखता है कविता
वह दर्द के समन्दर में लगाता है छ्लांग
एक वकील जब लिखता है कविता
वह सच के चाकू से छीलता है चमकदार पेंसिल
एक वकील जब लिखता है कविता
मुझे याद आते हैं केदारनाथ अग्रवाल1
याद आते हैं मानबहादुर सिंह2 बार-बार
एक वकील जब लिखता है कविता
वह नहीं होता किसी ख़बर का हिस्सा
एक वकील जब लिखता है कविता
उसकी माँ रोकती है उसे बार-बार
वह जानती है-
उसके परिवार पर टूटेगा जब मुसीबत का पहाड़
वह जाएगी तब किस काले कोट के पास
माँ जानती है-
हर मुसीबत का इलाज़ है काले कोट के पास
काला कोट जानता है पढ़ना हर मुजरिम का चेहरा
माँ काट देना चाहती है बचा हुआ जीवन
सतयुगी मुहावरों के साथ
वह नहीं जानती-
हर बार दम तोड़ता है सच काले कोट के कन्धों पर
एक वकील जब लिखता है कविता
वह जानता है अच्छी तरह-
उसका काला कोट नहीं बचा पाएगा फाँक भर मनुष्यता
नहीं बचा पाएगा मुट्ठी भर सच इस धरती पर
मरते रहेंगे उसकी आँखों के सामने असंख्य होरी
निगलता रहेगा विकास का अजगर
उसके तमाम खेत-खलिहान
काला कोट नहीं रोक पाएगा हत्याएं-आत्महत्याएँ
हार गए हैं राक्षसी तन्त्र के आगे
उसके तमाम वकीली मन्त्र
छुपाए थे उसने जो कभी काले कोट के अन्दर
एक वकील जब लिखता है कविता
वह बनाना चाहता है एक खूबसूरत दुनिया
चोर-सिपाही, कोर्ट कचहरी से मुक्त दुनिया
वह भूल जाना चाहता है-
आई.पी.सी. की तमाम धाराएँ
भूल जाना चाहता है-
हलफनामों की वकालतनामों की भाषा
वह लिखना चाहता है-
प्यार की भाषा का व्याकरण
ऐन उसी वक़्त गूंजने लगती है कानों में-
बेटे के खिलौनों की आवाज़
गूंजने लगती रोटी की थपथपाहट
एक वकील जब लिखता है कविता-
वह छुपाना चाहता है-
फिंगर प्रिंट्स की जगह
हथेलियों की गरमाहट
बनाना चाहता है-
कविता का शानदार घर
खेल सके जिसके आंगन में
बचपन के तमाम खेल अपने बेटे के साथ
कर सके याद-
धूमिल की, पाश की, लोर्का3 की पीड़ा
लिख सके प्रेम कविताएँ बेशुमार
बुन सके रिश्तों की एक मज़बूत चारपाई
वह उड़ाना चाहता है-
कविता के आकाश में पुरखों की पतंग
मनाना चाहता है छोटे-छोटे सपनों का उत्सव
लिखना चाहता है मनुष्यता कि मुकम्मल कविता।