दो बहिनें / हरिओम राजोरिया
दो इमलियाँ थीं रेलवे स्टेशन के बाहर
दो सगी बहिनें हों जैसे
एक जैसी बनक और विस्तार
एक जैसे ही दो झाड़
आधुनिकीकरण के चलते
एक दिन काट दिया गया दोनों को
सबसे पहले कटीं
लम्बी-लम्बी भुजाएँ
जो टेशन की तरफ़ इस तरह फैली थीं
जैसे आगन्तुकों को अपनापे से
बुला रही हों अपने पास
भारी रस्सों की मदद से
ज़मीन पर उतारा गया उन्हें धीरे-धीरे
नवनिर्माण चल रहा था
पुराना मिट रहा था
निर्मित हो रहा था नया
दोनों बहिनों की कटाई के साथ ही
प्रारम्भ हुआ स्टेशन का सौन्दर्यीकरण
इस काम से बहुत लोग ख़ुश थे
ज़्यादातर गल्ला व्यापारियों का मत था कि
कुछ पाने के लिए कुछ तो खोना ही पड़ता है
पर चिचिया रहे थे सैंकड़ों तोते
उनके लिए एक उम्रदराज वृक्ष भर
नहीं थीं ये इमलियाँ
ये रहवास थीं इन तोतों की
पर कोई बोलता तो बोलता कैसे ?
तोते नागरिक भी तो नहीं थे
न वोट देते थे, न टेक्स भरते थे
न नाट्य, न कविता, न गान
न किसी कथा में हो सकता था
इन गांगारामों के दुखों का बखान
कैसे कहूँ मूक पाखियों की व्यथा
कर नहीं सकता
इस आधुनिकीकरण और सौन्दर्यीकरण की
ठीक-ठीक व्याख्या ।